“माँ मेरे बस्ते के बोझ में मेरा बचपन दब रहा है।
सुबह सबेरे जल्दी उठकर मैं स्कूल जाता हूँ।
देर शाम को थका हुआ स्कूल से वापस आता हूँ।
होमवर्क है इतना सारा मुश्किल से पूरा कर पाता हूँ।
माँ मेरे बस्ते के बोझ में मेरा बचपन दब रहा है।
सुबह सबेरे जल्दी उठकर मैं स्कूल जाता हूँ।
देर शाम को थका हुआ स्कूल से वापस आता हूँ।
होमवर्क है इतना सारा मुश्किल से पूरा कर पाता हूँ।
माँ मेरे बस्ते के बोझ में मेरा बचपन दब रहा है।
विज्ञान गणित के प्रश्न हैं ऐसे चैन न पाने देते हैं।
इतिहास भूगोल में उलझा ऐसा नींद न आने देते हैं।
सामान्य ज्ञान के चक्कर में दिमाग का दही बन रहा है।
माँ मेरे बस्ते के बोझ में मेरा बचपन दब रहा है।
कॉम्पटीशन की होड़ लगी है मै पीछे न रह जाऊँ।
अपनी इस व्यथा को मै किसी और को कैसे समझाऊँ।
यही सोच सोच कर मन ही मन घबराता हूँ ।
माँ मेरे बस्ते के बोझ में मेरा बचपन दब रहा है।
क्या भूलूँ क्या याद करुँ कुछ समझ न आता है।
खेलकूद के लिए भी मुझे समय नहीं मिल पाता है।
मेरी पीड़ा माँ सिर्फ तू ही समझे इसलिए तुझे बताता हूँ।
माँ मेरे बस्ते के बोझ में मेरा बचपन दब रहा है।”
By: Dr Swati Gupta
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