Sunday 29 November 2015

This poem is dedicated to all the mothers who see their childhood in their daughters..

“मैं अपनी बिटिया में, अपना बचपन देख रही हूँ।
उसकी प्यारी सूरत में, अपनी परछाई देख रही हूँ।
सुबह सबेरे जब उसे उठाऊँ, बारबार आवाज़ लगाऊँ।
पांच मिनट में उठती हूँ माँ, ऐसा कहकर फिर सो जाए।
उसकी इस अदा में मैं, अपना बचपन देख रही हूँ।
जब मैं उसपर गुस्सा हो जाऊँ,तो रोनी सी सूरत वो बनाए।
जब प्यार से उसे बुलाऊँ,मेरे आँचल में छिप जाए।
उसके भोलेपन में मैं, अपना बचपन देख रही हूँ।
daughter
स्कूल से जब वो बापस आये, दिनभर की बाते वो सुनायें।
अपनी प्यारी बातों से वो,मेरे मन को बहलाये।
उसकी प्यारी बातों में मैं, अपना बचपन देख रही हूँ।
पैरों में पहनके पायल, छमछम छमछम तान सुनाए।
कभी गुड़िया के साथ वो खेले, कभी खिलौने उसको भाये
उसके इस प्यारे से खेल में, अपना बचपन देख रही हूँ।
कभी मंद ही मंद मुस्काये, कभी खिलखिलाकर वो हँस जाए
अपनी इस हंसी से वो, पूरे घर की रौनक को बढ़ाये।
उसकी इस मासूम हंसी में मैं, अपना बचपन देख रही हूँ।
कभी डॉक्टर के ख्वाब बुने, तो कभी इंजीनियर बनना चाहे।
नित रोज वो नये नए ख्वाब को, हकीकत में बदलना चाहे।
उसके इन ख्वाबो में मैं, अपना बचपन देख रही हूँ।
उसकी प्यारी सूरत में, अपनी परछाई देख रही हूँ।”
By: Dr Swati Gupta

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